भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महक रहा है कब से यह प्रतीक / उद्भ्रान्त
Kavita Kosh से
महक रहा है
कब से
यह प्रतीक
शब्दों के जंगल में
समझ नहीं पाता हूँ
बहुत खूबसूरत
यह फूल
दृष्टि में कैसे खिल गया
मैं उस
प्राचीन मार्ग से ही तो
चला था
रास्ता नया
कैसे मिल गया
दहक रही है
रक्तिम
नई लीक
राहों के जंगल में
महक रहा है कब से यह प्रतीक
शब्दों के जंगल में
विगत कई सदियों से
चिपके
जो बासे संस्कार
सुनो !
दूर बहुत छूट गए
पुरखों के
कर्मकांड के
अंधे मानदंड
प्रातःकालीन सूर्य के स्वर से
टकरा कर टूट गए
चहक रही है
ताजी
युवा सीख
वृद्धों के जंगल में
महक रहा है कब से यह प्रतीक
शब्दों के जंगल में
--’समकालीन भारतीय साहित्य’ (नई दिल्ली), मई-जून, 1996