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महक / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध

महक छूटी हुई सड़कों पगडँडियों की, जो छूटती नहीं है।
अनजान पीड़ाओं में, मेज़ पर, दीवार पर सर टकराते हुए अचानक रुकते
हैं हम।
महक आती है वह फिर से कूकती कोयल, वह दादुर का कंठ, वह
धमक-धमक मेघ।
अरे वह प्लेटफार्म पर दुल्हिन, वह सुड़क सुड़क चाय पीता जनकवि,
वह आवेग। महक।

बाबा, अभी दो बार ही तो मिले थे। बाँग्ला में बतियाना ज़रा-सा ही
सही अभी और तो था होना।
अभी और था समझना कौवे के पंख खुजलाने का प्रसंग। अरे ओ मलंग,
अभी कहाँ छूटे तुम, बार बार आओगे, मुझे जगाओगे।
बन महक लोगों के पसीने की, मुहल्ले की औरतांे और मटकों में टपकते
पानी की, मुझे दोगे ताक़त मुड़ मुड़ उठ आसमान ढूँढ़ने की।
फ़िलहाल सलाम ही माँगा है न!
सलाम बाबा सलाम।