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महक / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उफ़्फ़ !
तुम्हारी देह से कैसी महक
आ रही है
क्या तुम सिगरेट पीकर
आ रहे हो ?
देखो — कितनी साँवली हो गई हैं
तुम्हारी उँगुलियाँ
ओठ भी हो गए हैं
बदरंग
लोग कहते हैं तुम्हारे होंठों में
कई चुम्बन बुझे हुए हैं
लड़कियाँ तुम्हें विषपायी कहती हैं
तुम्हारे लिए मुझे क्या-क्या
सुनना पड़ता है – मेरे सिगरेटनवाज़
दोस्त !
तुम तो सिगरेट की चेतावनी तक
पी जाते हो
और मेरे पास पहुँचते ही सारी
वर्जनाएँ तोड़ देते हो
एक दिन मैं तुम्हें धमकी दूँगी
कि अगर तुमने सिगरेट नही छोड़ी
तो मैं तुम्हें छोड़ दूँगी
लेकिन उस गन्ध का क्या होगा
जो मेरी रग-रग में बसी हुई है ?