भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
महतारी भाषा बचाई / हरिदेव सहतू
Kavita Kosh से
गरम लगी
अमृत बरसी
ठंडी लगी
बन सुरुज चमकी
अँधियार होई
बन चन्दा मुस्काई।
महतारी भाषा रोइ
के अब बचाई
बादर, सुरुज चन्दा बन जा
अँधकार जाई
रोशनी आई
सरनाम के
घर आँगन
खेत जंगल से
लेई के चली
महक महक के
मधुर बानी
सुनावे सबके
अजवा अजिया
नाना ननिया
तोहार हमार
हृदय मन के
एकता प्रेम
प्यार के बतिया।