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महफूज़ / शशि सहगल
Kavita Kosh से
हम साथ-साथ रहते हैं सालों साल
कभी, इन सालों का इतिहास
ज़िन्दगी की किताब के शुरुआती पन्ने
गुलाबी आभा बिखेरते
मोहते हैं मन को
फिर फीकी पड़ने लगती है चमक।
धीरे-धीरे जो याद करने से ही होती है महसूस।
घर को संवारने में रीतती औरत
खुद को सजाना भूल जाती है
और पर्याय बन जाती है सुघड़ता का
ऐसे ही आँख में सुरमा लगाते
सोचती है वह
क्या फर्क है सुरमे और औरत में?
बहुत महीन पीसा जाता है सुरमा
इतना बारीक कि आँख में लगाते वक्त
चुभे नहीं वह
सिर्फ खूबसूरती बढ़ाये आँख की।