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महबूब के गुस्से की अदा और ही कुछ है / रतन पंडोरवी

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महबूब के गुस्से की अदा और ही कुछ है
ये ज़हर नहीं इस का मज़ा और ही कुछ है

काबे में भटकता है कोई दैर में कोई
धोखे में हैं दोनों ही ख़ुदा और ही कुछ है

घर से तो चला था कि उन्हें राम करूँगा
महफ़िल में जो आया हूँ फ़ज़ा और ही कुछ है

ऐ जाने-अदा तेरी अदा सिहर है लेकिन
मरता हूँ मैं जिस पर वो अदा और ही कुछ है

मैं ख़ाक हुआ मिट के तिरी राह-गुज़र में
इस पर भी तू कहता है वफ़ा और ही कुछ है

काबा हो कि काशी हो मुझे उन से ग़रज़ क्या
मेरी तो निगाहों में बसा और ही कुछ है।