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महरूम हूँ जवाब से तुझ को पुकार कर / सफ़ी औरंगाबादी
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महरूम हूँ जवाब से तुझ को पुकार कर
परवर-दिगार दौर मेरा ख़ल्फ़िशार कर
कुछ इख़्तियार है तो वो काम इख़्तियार कर
हर काम को दुल्हन जो बनावे सँवार कर
कर दी तेरी अदा-ए-करम ने ज़ुबान बंद
उम्मीद-वार रह गए दामन पसार कर
दस्त-ए-जुनूँ से छूटती अगर अपनी आस्तीं
दामन की ख़ैर माँगते दामन पसार कर
बे-फ़ाएदा किसी को सताने से फ़ाएदा
तुझ को क़रार हो तो मुझे बे-क़रार कर
सीने के ज़ख़्म तो नहीं मेरे जिगर के दाग़
हम दम दिखाऊँ क्या तुझे कुर्ता उतार कर
मिल कर गले मिज़ाज ही उन का नहीं मिला
तेवर बिगड़ गए मेरी बिगड़ी सँवार कर
भट्टी के हैं उरूज ओ ज़वाल ऐसे पीर जी
मय-कश चढ़ा के ख़ुश है तो मय-गर उतार कर
होते ही बे-गुनाह ‘सफ़ी’ सारिक़न-ए-शेर
लिखते हैं जिस कलम से वो होता है पारकर