भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

महर्षि-दीप / रामगोपाल 'रुद्र'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये!

असत्यदृष्‍टि-दर्श दृप्‍त था दिगन्‍त में,
अहम्मतिप्रधान मान अन्‍त-अन्‍त में;
कहीं न दृष्‍टि एक भी प्रकाश की किरण,
अदृष्‍ट-पंक में निमग्‍न थे नयन-नयन;

विमान जाति का अनन्‍त ध्वान्‍त क्यों तरे?
कहाँ समान अवतरण? किधर गमन करे?
कि गुर्जरी ज़मीन पर कहीं दिया दिखा;
बढ़ा विमान 'मूल' की तरफ़ नज़र किये।
दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये!

कि मूल, जो विकस वटत्रयी सघन बना,
प्रकाण्ड-ज्ञान-शाख-संहिता-सहित तना,
उदग्र अग्रहिर, प्रसन्नता हरीतिमा,
स्वतन्‍त्र शक्‍त प्राण, घ्राण में पुनीतिमा,

कली-कली प्रकाश के विकास के नयन,
अपौरुषेय-ध्यान, पौरुषेय-मान-धन;
प्रदीप थे महर्षि द्वीप-द्वीप के लिए।
दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये!

कि राम थे, व्रती बने वनान्‍त में अटे;
कि कृष्‍ण थे, न क्रूर-खड्‍ग-भीति से कटे;
कि बुद्ध थे, विरक्‍त फिरे लख स्वजन-निधन;
कि ख्रीष्‍ट थे, दयार्द्र, हुए देख आर्त्‍त जन;

कि एक-ईश-वाद-बन्‍धु-भाव के नबी;
कि सिद्ध सन्‍त थे कि भूति भक्‍ति से दबी;
प्रताप जाति के कि देश के महेश थे;
अमृत दिया समाज को, गए गरल पिये।
दिया बुझा, मगर जला गया नए दिये!