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महातम - १ / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान

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गीता पढ़वैया रामा सांची सांची बतिया हो।
प्रीत के नगरिया बसावैय हो सांवलिया॥
गीता करावैय रामा सब से पिरीतिया हो।
ऊंच नीच भेद भाव छारि हो सांवलिया॥23॥
डोम, चमार पढ़ैय, पढ़ैय हलखोरवा हो।
पापी कमाई दाई माई हो सांवलिया॥
पढ़त पढ़त छुवैय प्रभुके चरनियां हो।
जनम-मरण सुख पावैय हो सांवलिया॥24॥
भारत के मूलधन गीता-गंगा, गैया-मैया।
आरो धन धूल फेर तूल हो सांवलिया॥
सभ के पिलावे मीठ-दूध गैया-मैया हो।
पर गीता पिलावे लूर दूध हो सांवलिया॥

गोपी कृष्ण टन्डन कुटीर, लक्ष्मण सिंह ‘कलाकार’ (रमना, मुजफ्फरपुर)