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महादेव / सुलोचना वर्मा

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“महादेव” आजकल मौन हैं
नित्य हलाहल पीते हैं
संपूर्ण जगत विषैला जो हो गया है
“नील कंठ” का पूरा वर्ण
अब नीला हो गया है
“रुद्र वीणा” अब राग “विहाग” गाती है
“भैरव” को किसी श्मसान की
आवश्यकता नही रही
चलते फिरते लोग प्रायः मृतसमान हैं
शरीर जीवित है, आत्मा मृत
गण में मानव में भेद नही
क्या ये प्रकृति का उच्छेद नही
“शिव” भक्त रुद्राक्ष धारण कर रहे हैं
“रुद्र” की पीड़ा का उन्हे तनिक भी भान नही
अज्ञानी हैं, क्या जाने
आँखे मूंद कर विष पीना इतना आसान नही
“गंगाधर” के जल की धारा संकीर्ण हो रही है
मानव के उच्छेद की प्रक्रिया विस्तीर्ण हो रही है
“नागेश्वर” के गले मे आज भी सर्प है
ग्लानिहीन मनुष्य को व्यर्थ का दर्प है
सर्वश्रेष्ठ प्राणी – मनुष्य विवेकहीन सिल गया
पाशविकता जैसे उसके रक्त मे मिल गया
मानव में मानवता का तुम विश्वास भरो
हे “पशुपतिनाथ” अब मानव का त्रास हरो
ज्यूँ पृथ्वी मानवता भूलने लगी है
“व्योमकेश” की जटा खुलने लगी है
“नटराज” का बायाँ पाँव उठने को आतुर
किसी प्रत्याशित तांडव को निमंत्रण दे रहा है
एक नूतन सृष्टि के निर्माण का
ब्रह्मा को नियंत्रण दे रहा है