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महानगर के जंगल में / अश्वघोष
Kavita Kosh से
महानगर के जंगल में हम
घूम रहे होते
शायद हमने कर डाले
अनचाहे समझौते
संधिपत्र तो लिखे
प्यार की क़ीमत नहीं चुकी
अपने ही अधरों में बन्दी
अपनी हंसी-ख़ुशी
फूटे रिश्तों में
बैलों से जोते
महानगर के जंगल में हम
घूम रहे होते
अम्मा की रामायण-गीता
सहसा रूठ गई
हरिद्वार के गंगाजल की
शीशी फूट गई
पानी पर तिनके की नाईं
घूमे समझौते
शायद हमने कर डाले
अनचाहे समझौते