तुलसी चौरा ढूँढ रही हैं
महानगर में दादी
घर है या मुर्गी का दड़बा
छत दालान न आँगन
कहाँ अरघ दें
सूर्यदेव को
कहाँ रखें अग्रासन
कहाँ विराजेंगे ठाकुर जी
पूजा होगी कैसे
ये सवाल दादी के मन में
उठते हैं रह- रहके
जैसे तैसे दादी जी ने
खुदको यूँ समझाया
क्या मलाल मन में करना है
सब प्रभु जी की माया
फिर भी अकसर
दिल में उनके
हूक उठा करती है
ओसारे में खड़े नीम की
जब-जब याद सताती।
बेटे बहू चले जाते हैं
बड़े भोर से ऑफिस
साँझ ढले तक ही दोनों
आ पाते हैं घर वापिस
चार साल के पोते को
दादी कब तक बहलाएँ
अजब गजब जिद उसकी दिन भर
पूरी न कर पाएँ
दादी के हाथों का उसको
हलवा तक न भाता
जिद्दी बच्चा रोते -रोते
भूखा ही सो जाता
सारे घर में करता है तब
भाँय भाँय सन्नाटा।
सन्नाटे में दादी की
तबियत बेहद घबराती।