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महानगर / कुमार मुकुल

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सुबहें तो तुम्हारी भी

वैसी ही गुंजान हैं

चिड़ि़यों से-कि किरणों से

व भीगी खुशबू से


बस तुम ही हो इससे बेजार

कुत्ते की मानिन्द सोते रहते हो


तुम्हारे नाले विराट हैं कितने

बलखाती विविधताओं से पछाड़ खाते

और नदियों को

बना डाला है तुमने

तन्वंगी

और तुम्हारी स्त्रियाँ

कैसी रंगीन राख पोते

भस्म नज़रों से देखती

गुज़रती जाती हैं।