महाबैताल / भारतेन्दु प्रताप सिंह
भरी, आषाढ़ी-रात गांव के छोर
स्याह-काले सन्नाटे,
बिंधता रोम-रोम, टर्राते मेढक, झींगुर झर्राते॥
टूटे-बिखरे छज्जे से होकर
रिसता दीवारों पर,
बीते-बारिश का कहर कोंचता गांव, बैल, घर॥
धुप्प अँधेरा पसर बैठता
दूर-दूर तक निर्जन ताल-पोखरे, पगडंडी को बांध 'डीह' तक॥
आधी रात चले छप-छप
बैताल सतह पानी-ढाबर
पर मुंह में लिए लुकार करे विचरण, सिवान भर॥
हरहरात पीपल समेत
खेतों से होकर,
ठहर ताल के पास, बुलाए प्रेत-निशाचर॥
पंगत बैठ, मंत्रणा कर
गिनते-पुकारते हुए
अकाल-काल के घातक सब अभिशप्त जनों को॥
खेत प्रहरी पर टूटी बिजली+
पिछले साल, हुआ बैताल
तभी से घिरे गांव के छोर, स्याह-काले जल से, लबलब॥
ऊपर, डूबे धान-खेत की
उत्सव भूमि बनाकर
करे प्रकम्पित हास्य-नाद प्रेतों का, बनझंझा दे झकझोर,
गांव के छोर॥
हास्य क्रन्दन के पहले, पोखर-बिच, अशुद्ध मंत्र उच्चारण
देता शक्ति सभी प्रेतों को,
जिससे तहस-नहस कर फसल, बांधकर 'डीह' रौंदते
जीवात्मा को॥
सोते हलवाहे, गड़ेरिये,
गाय-बैल बकरी समेत
रात की भभुति को
खोदे-गाड़ कर गहरे,
तोड़, यज्ञ-बेदी, सारे
विश्वास
उलट-पलट कर, घाल-मेल कर,
जन-जन के सपने में आया तोड़-मरोड़
त्रासद-पीड़ा-दायक
कौतुक करता बैताल, बनाता इन्द्रजाल पर इन्द्रजाल।
सोते बच्चे को चौंकता,
कि चले पांचवे-साल, किनारे ताल,
जहाँ जलप्लावित होकर, कर डाले विकराल जाल का ताल,
विचरे शाश्वत तृष्णा बीच महत्त्वाकांक्षी, बन बैताल महाबैताल॥