ओ , शौर्य - सिंह !
तुम्हारे वज्र - बलिष्ठ शरीर की
पुष्ट और स्वस्थ धमनियों में विश्व - विख्यात ,
बापा रावल ,कुम्भा सिंह ,संग्राम सिंह
तथा पिता उदय सिंह का
वंश -परम्परा से प्राप्त पराक्रम
रौद्र रूप धारण कर सवेग दौड़ता था
तुम्हारे दक्षिण हस्त में
लौह खांडा नहीं दहकता वज्रास्त्र जगमगाता ,
वाम हस्त में शत्रुओं के भाल चीरता भाला
जिसकी तीक्ष्ण नोक अकबर के वक्ष में सदा
चुभती रही ,चुभती रही ,चुभती रही .
ओ ,साहस - समुद्र !
युद्ध के दहकते - दह्काते परिवेश में
जब पराक्रम का आवेश तीव्रावेग से तुम्हारे
विशाल वक्षस्थल को असाधारण जय के लिए
भीतर से धक्के मार - मारकर बारम्बार उकसाता ,
तब तुम्हारा व्यायामी भुजदंड घात लगाकर
जिस ओर सबल खड्ग से घातकाघात करता
क्रूर आक्रमणकारियों के मस्तकों के झुण्ड
कट - कटकर धरती पर बिखर जाते ;
विश्व - विनाशक यम
तुम्हारे निर्भय सूर्य -समान नेत्र की तीक्ष्ण
किरण - दृष्टियों से दृष्टि मिलाने से कतराता .
ओ , धैर्य - पर्वत
स्वाधीनता - विरोधियों से लोहा लेते समय
तुम्हारे एक ही शीश कटा देने वाले
अमर मरण - संकेत पर युद्धायुध - सन्नद्ध
राजपूत योद्धा जन्म - धरा के लिए अपना रक्त
कर्मक्षेत्र रणस्थल में पानी की भांति बहाते ,
शूरों की तीर्थ - स्थली हल्दीघाटी के
अणु - अणु कण - कण को उन्होंने,
स्वतन्त्रता की मंगल - कामना के लिए
पावन शिव - लिंगों की भांति
निज गुनगुने लोहू से स्नान कराकर पूजा था .
ओ ,तेजस- सूर्य !
जब -जब तुम अपने अतुलित आत्मबल से
पूर्ण परिपूर्ण होकर तन्मय संगर - लीन होते,
दु:साहसी दमनकारियों के सहस्रों दुष्ट हृदय
संत्रास के तूफानों से थर - थर थरथराते ;
अहंकारी हुंकारें और घमंड - रंजित ललकारें
हाहाकारों में परिवर्तित हो
क्षत- विक्षत कराहने लगतीं,
तुम्हारे अकुंठित प्रताप के ओजस्वी ताप से
तप्त होकर ईर्ष्या से जलते शत्रु का
राजसी अहंकार धू - धू धधकने लगता .
ओ ,अतुलबली !
तुम्हारा भारी - भरकम खांडा
ग्रीष्म के तूफानी अंध अंधड़ की भांति चलकर
निष्प्रभ आतंककारियों के असंख्य शीश
आकाश में उछाल उछालकर उडाता ,
वह कटे मस्तकों के
मेघ - स्पर्शी ढेर लगा - लगाकर
माँस- लोभी गिद्धों ,स्यारों और कागों को
महाभोज के लिए निमन्त्रण देता ;
तुम्हारा तो शिरस्त्राण - धारी प्रतिबिम्ब ही
निरंतर जीवंत लड़ाई लड़कर
विपक्षियों में हलचल मचा देने में सक्षम था .
ओ ,महाबाहो !
ऐसे में उत्साहों से उत्फुल्ल होकर
बारम्बार नथुनों से फुत्कार रहा बलशाली चेतक
घोर श्रम के कारण मुँह से श्वेत फेन बहाता ,
उत्तेजित हो - होकर अगली टांगें उठा
पिछले पांवों पर खड़ा हो उच्च स्वर से हिनहिनाता ,
बर्बर विपक्षियों के शिरों पर
लौह खुरों को पटक और उन्हें सक्रोध रौंदकर
संग्राम - भूमि को श्मशान - भूमि में बदल देता ,
पृष्ठारूढ़ तुम्हारे कीर्ति - कर्म की व्यापक ऊर्जा
उसके स्वामी - भक्त
अश्व - मन में सहज ही प्रवेश कर जाती .
ओ ,पौरुष - प्राण !
स्वतंत्र भारत के लोकतंत्र के गौरव !
जब सर्वदिशा -अत्याचारी
मुगल - दल- बल के युद्धांध अश्वों के खुरों से
उठे शोणित - मेघों ने देश की ,
संस्कृत संस्कृति के भाग्य को
अपने अत्याचारी चक्र - व्यूह में घेर लिया
और कुचल डाला सभ्य सभ्यता को
तब भारत के अंधकाराच्छादित नभ में
स्वतन्त्रता की तेरी ऊर्ध्व पताका
गर्वोन्नत शिर कर
फहराती रही ,फहराती रही ,
फहराती रही ..
(चल ,शब्द - बीज बोएं ,२००६)