महावन / राजकमल चौधरी
(1)
जीवनक एहि समय-दाहक महावनमे, कतेक युगसँ
ताकि रहल छी-
कोनो अरूप देवतापर चढ़ाओल गेल किरणमाला
हमसभ अनिकेतन, अपराजित;
एकटा हेरायल रस्ता
एकटा हेरायल स्वप्नक लाल-उज्जर तारतम्य,
एकटा हेरायल मुख ककरो,
हम सभ अनिकेत, अपराजित कतेक युगसँ ताकि रहल छी
जीवनक एहि प्राण-पावक महावनमे
किरणमाला!
अन्हारमे भेटैत अछि अतीत-प्रेतक वृक्ष-शव अनेक!
पयर तर ओंघराइत छथि स्वर्ग-पतित
अप्सरा!
आँखिमे जाड़ेँ कँपैत अछि ज्वरग्रस्त चिड़ै चुनमुनी!
उचरैत अछि एकटा कारी-पीयर गिद्ध बारम्बार
हमरे नाम-
चलू हे कवि, एहि बेर अहीं चलू भुतहा मसान
खापड़िमे भूजू अहीं अप्पन प्राण!
पयर तर ओंघराइत स्वर्ग भ्रष्ट अप्सरा, आ
हेरायल स्वप्नक लाल-उज्जर तारतम्य
हमरासभकेँ-
आबो विकल व्यथित क’ रहल अछि, अकारण!
आबो मथि रहल छथि नीर-सागर,
देव-दानव अविवेकी;
आबो नचिकेता सदिखन पुछैत अछि धर्मराजसँ
जीवन आ मृत्युक रहस्य;
आबो एकटा अश्वत्थामा हाथी निहत होइत अछि
कोनो युधिष्ठरक
सत्य आ नैतिकताक सुरक्षार्थे
-मुदा,
ई सभटा पौराणिक दुष्काण्ड होइत अछि, एही महावनमे
हमरे सभक अन्तरंगमे होइत अछि
द्रौपदी-चीर-हरण
आ, राजा जनमेजयक विख्यात नाग-यज्ञ!
(2)
अन्हारमे भेटैत अछि, अतीत-प्रेतक शव-वृक्ष अनेक;
ककरो एकटा चिन्हार मुख
नहि भेटैत अछि, जे तकरेसँ पूछल जाय-
ओहि मन्दिरक मार्ग;
पूछल जाय ओहि अरूप देवताक हिरण्यगर्भ सिंहासन;
जाहिपर उत्सर्ग कयलहुँ किरणमाला
हमसभ
ताकि रहल छी मनुपुत्रक लेल!
महावनमे गुँजेत अछि केवल मृत वेश्यासभक क्रन्दन
केवल एकटा कारी पीयर गिद्ध
उचरैत हमरे नाम-
सुखायल सेमरक कुष्ठोदरमे बैसल हँसैत अछि;
हमसभ अनिकेत, अपराजित बरखासँ
बचबाक लेल;
बचबाक लेल बज्र ठनकासँ
सेमरक एहि डारिसँ ओहि डारि तर नुकाइत,
मृत्युसँ नुक्का-चौरो खेलाइत रहइत छी राति भरि!
किन्तु,
कहियो नहि समाप्त होइत अछि राति!
कहियो पंचम सुरमे नहि गबैत अछि कोकिल
भोरक, अथवा वसन्तक गान!
हमरासभक पूर्वज भोर देखने छलाह!
गौने छलाह पराती, वसन्तक स्वागतमे वसन्त-बहार
बनि गेल छलाह;
किन्तु, आइ हम सभ एहि महावनमे छी समस्त
पूर्वज-विहीन!
हुनका सभक कोनो संस्कार,
कोनो परम्परा
कोनो श्रद्धा नहि रहि गेल अछि हमरा सभमे!
हम सभ निराश्रित, निराधार
क’ रहल छी अमावाश्याक एहि श्मशानमे
सभ व्यतीत वस्तु-जातकेँ
अस्वीकार!
(3)
आब अस्तित्वक अविचल यथार्थ दुइएटा अछि
प्रथम ई जे हमसभ ताकि रहल छी
किरणमाला;
दोसर एतबे जे अतीत-प्रेतक अनिवार्य संगतिमे, महावनमे
जीवित छी हमसभ!
(मिथिला मिहिर: 27.2.66)