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महिदूद / मुकेश तिलोकाणी

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आङरि खॼे
हथु मिले
पेरु खॼे, बिही रहे
नकी हा
नकी न।
ॿि तरिफ़ी
ख़ाली स्पेस में
खड़ी थियल दीवार
का माना
का खु़शी
को अहिसासु।
बेशकु़
ॻाल्हि घेरे में
घुमे थी, रम्ज़ फेरियूं पाए थी
ऐं ॾींहुं
नज़रुं मिलाइण ताईं
महिदूद रहिजी वञे।