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महुआ का मद / उमाकांत मालवीय

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महुआ का मद
फिर पलाश की आँखों में उतरा ।

यह कैसा गुलाल
वन - वन के
अँग अँग छितरा ।

एक कुँवारी हवा
छिऊल के तन पर लहराती
छाँव, तने से हिरनी
अपना माथा खुजलाती
टेसू के ठसके
क्या कहने
कैसा घम बदरा ।
 
शोणभद्र के बीच धरी
तहियाई चट्टानें
अठखेलियाँ कर रहीं लहरें
भरती हैं तानें
अँगो की उभरन, सौ नखरे
चलती है इतरा ।

काले कमल सरीखे पत्थर
गोपद बीच खिले
फूलों से ज़्यादा यह सुन्दर
पाहन मुझे मिले
फेनों की उजरौटी
श्यामल पाहन चितकबरा ।