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माँड़ / शिरोमणि महतो

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गरम गरम माँड़
माँ न पसाकर रखा है
भरा पड़ा है तसले में
उठ रही भाप
जैसे अभी-अभी दूहकर रखा हो दूध !

धीरे-धीरे जमने लगा
गाढ़ा हो रहा रक्त की तरह
देखकर मन ललच उठता है पीने को

एक ’डुभा’ माँड़
और एक कलछुल भात खाकर
मेरे घर का गोरखिया
दोपहर तक खटता है खेत में
उसके बच्चे माँड़-भात को दूध-भात कहते है !

भरपेट माँड़ पीकर
डकार लेने से आधी रात को
पकड़ा गया था —
गाँव का सेंधमरवा चोर !

आज जब भी मेरी माँ
एक कटोरा माँड़ लेकर
पीने को बैठ जाती पीढ़े पर
और एक घोंट पीते ही
पता नहीं कहाँ खो जाती है
कि दो आँसू टूटकर गिरते
ओर माँड़ को हिला देते हैं –
माँ का पूरा अस्तित्व ही काँप उठता है !

मेरे जन्म के ठीक बारह दिन बाद
मेरी माँ और चाची ने
दो–दो कलछुल माँड़ पहले पी लिया
सो मेरी ज्येठी ने हल्ला मचा दिया था

हल्ला इतना ज़ोर से हुआ था कि
घर की दींवारें दरक गईं
एक घर में कई दीवारें हो गईं
और एक दीवार में कई द्वार !