भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ, कामरेड और दोस्त / सुरेन्द्र स्निग्ध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक

लौट चलो बेटा
लौट चलो घर

क्यों तपा रहे हो शरीर
किस बात का ले रहे हो बदला
अपने आप से

चल के जरा देखो तो
तुम्हारे बब्बा
चिन्ता में घुल रहे हैं
बच रही है सिर्फ़ ठठरी

तुम्हारी बहिना
गुमसुम पड़ी रहती है
बड़ी हो गई है
कई तरह की चिन्ताओं से
घिर गई है बेचारी
जब से सुना है
तुमने छोड़ दी है पढ़ाई-लिखाई
लोग-बाग कहने लगे हैं
का तो तुम नक्सलाइट बन गए हो?

मैंने सुना है बेटा
संगी-साथियों के साथ तुम
गीत गाते हो
मजमा लगाते हो चौराहों पर
नाटक करते हो

सुनती हूँ
सरकार इन गीतों से
इन नाटकों से
बहुत घबराती है
घबराता है गाँव का ज़मींदार

आख़िर क्या है इनमें
तुम क्यों गाते हो ऐसे गीत?

तुम्हारे कमरे में
पुलिस वालों ने मारा था छापा
उठाकर ले गए थे
काग़ज़, पत्तर, ढेर सारी किताबें,
ढोल और डफली,
पुलिस वालों ने ही
ख़बर भिजवाई थी-
’’आपका बेटा, नक्सलाइट हो गया है
समझाइए, बुझाइए
वापस बुला लीजिए घर।‘‘

मेरे फूल जैसे कोमल बेटे
किसने बहला-फुसला लिया है तुम्हें
कुछ प्रोफ़ेसरों ने
या साथ में गीत-नाटक
करने वाली शहर की लड़कियों ने
वे क्यों गाते हैं गीत
क्यों करते हैं नाटक
भूखे-प्यासे
किसानों-मज़दूरों के बीच
चमारों-दुसाधों की बस्तियों में

इतना पढ़-लिखकर
शोभा देता है
नाटक-नौटंकी करना

मति मारी गई है तुम सबों की ।

दो

मेरी प्यारी माँ
ऐसा कुछ नहीं करते हैं हम लोग
कि तुम्हारा सिर नीचे झुक जाए

हम तो पोंछना चाहते हैं आँसू
तुम्हारी तरह की
हज़ारों माँओं की आँखों के
बोना चाहते हैं सपनों के बीज
लहलहा सके जिससे
मुक्ति की फ़सल
काट सके जिसे आने वाली सन्तान
तमाम सुखों और
समृद्धियों के साथ

शोषण और दमन के चक्के को
हम करना चाहते हैं चूर-चूर
ताकि आज़ादी की खुली साँस
ले सकें आने वाली सन्तान

श्रम की शक्तियों से
खिले फूलों की ख़ुशबू से हम
भर देना चाहते हैं
मजलूमों की झोंपड़पट्टियाँ

हम तो बनना चाहते हैं माँ
सर्वहारा के हाथों का तेज़ औजार
काटने के लिए शोषण के
जंग लगे तन्त्र
हम तो बनना चाहते हैं
उनकी बाँहों की मांसपेशियाँ
ताकि मथ सकें वे
शोषण के अथाह समुद्र

माँ, प्यार से चूम लो
मेरा यह खम
जिसमें है तुम्हारे प्यारे बेटे के
मजबूत हाथों का स्पर्श
जिसकी उँगलियों के पोर-पोर में
ठाठें मार रहा है
तुम्हारा उष्ण दूध
जो गढ़ रहा है
अजेय हथियार ।

तीन

कितने भारी मन से
समेट रहे हो किताबें
बाँध रहे हो गट्ठर

कितना दुखी हो आज, कामरेड
अपने घर वापस होते हुए

तुम्हारा भी था एक छोटा-सा सपना
सामने थी पूरी ज़िन्दगी
माँ की ममता
बूढ़े पिता का दुलार
सब कुछ छोड़कर तुमने
क्रान्ति के रास्ते पर
सोच-समझकर रोपे थे पैर

संघर्ष के इलाकों में
आँधी की तरह
काटे थे चक्कर
भूखे-प्यासे
लेकिन अदम्य उत्साह के साथ

मज़दूर बस्तियों में किया काम
पार्टी लिट्रेचर ढोया कन्धों पर
लेख लिखे / अनुवाद किया
वॉल-राइटिंग की
और क्या-क्या नहीं किया

आज क्या हो गया है, कामरेड
क्या हो गया है आज
कैसे हो गया है तुम्हारा मोहभंग

कहाँ से आ गए निराशा के बादल
हे बसन्त के वज्रनाद के
ख़ुशबू वाले फूल
कहाँ जा रहे हो तुम
क्या-क्या खोजना चाह रहे हो
लौटकर
इन किताबों में ।