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माँ, मुझे अपनी शरण दो / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
माँ, मुझे अपनी शरण दो !
सर रखूं जिस पर, चरण दो !
थक गया हूँ राह चलते
पाँव संभले न संभलते,
नीर पर कैसे चलेंगे
तीर पर ही जब फिसलते;
घेरता मुझको अंधेरा
एक मुट्ठी ही किरण दो !
यह किसी का ही गगन है
यह नहीं मेरा भुवन है,
फूल हैंµरस, गंध, कोमल
पर सभी से दूर मन है;
चित्त चिन्मय हो सके अब
उन्मनी का आचरण दो !
मैं शरण में हूँ तुम्हारी,
दिव्य लगती सृष्टि सारी,
झर रहे संगीत के सुर,
नच रही प्रकृति प्यारी ।
क्या मुझे लेना है इससे-
मुझको जीवन दो, मरण दो !