माँ और गौरैये / अमित कुमार अम्बष्ट 'आमिली'
जब कच्चे मकानों के
छतों तले होता था एक खुला आसमान ,
दीवारों की दरारों से
सिर्फ बारिश का पानी नहीं टपकता था
ये दरारें खुद ही में एक घर होती थीं।
जहाँ सांसें लेते थे छोटे-छोटे अंडों से
निकले कुछ नवजात बच्चे,
आंखें मूंदे चीं चीं करते,
फिर उनकी माँ का फुदक-फुदककर
चोंच में दबाकर लाना सूखी नर्म घास!
ताकि मख़मली घास के बिस्तर पर
महफूज़ रहें बच्चे।
आज तक समझ नहीं आया कि
कितने नर थे, कितने मादा
सबका एक सा चहचहाना
और माँ के छोटे से पंख में सिमट जाना!
काश ! हम इंसान भी
गौरैये सी समझ रखते!
तब हुआ करता था
घर में एक आंगन भी,
जहाँ माँ रस्सी से बनी अरघनी पर
कपड़े सुखाया करती,
और ठीक उसी अरघनी पर गौरैये
फुदक-फुदक कर माँ को छेड़ा करते,
सारा दिन चलता गौरैयों संग माँ का यह खेल!
शायद वे गौरैये माँ के
लड़की से बहू और फिर माँ बनने की प्रक्रिया में
खोई नादानियों को चाहते थे फिर से लौटाना!
तभी माँ और गौरैयों में कभी ठनती नहीं थी,
सिर्फ इतने तक ही सीमित नहीं थी
गौरैयों की हिमाकत
जब माँ डगरे में बीनती चावल ,
या सूप से फटकारती थी धान या गेहूँ
वे निडर हो माँ के सामने से फुदकते
उठा ले जाते अपने हिस्से के कुछ दाने।
कभी पिता जी को दफ्तर से होती देर तो
माँ के संग बेचैन रहते थे गौरैये भी!
और जिस झरोखे से झांक-झांककर
माँ घंटों राह तकती,
ठीक उसी खिड़की के जंगियाये सरिये पर
माँ के साथ टकटकी लगाये फुदकते थे गौरैये!
अब कच्चा मकान
कोठी में तब्दील हो गया है,
और माँ , माँ से बन गई है दादी - नानी
अब माँ को अपने मैके की याद भी नहीं आती,
अब घर की किसी दीवार में
कोई दरार भी नहीं है,
न ही बचा है कोई आँगन,
और माँ की नादानियों को भी अपने साथ लेकर
फुर्र हो गई है गौरैया !