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माँ और सूरज / वीरा
Kavita Kosh से
हवा आने और चूल्हा
बुझ जाने के ख़तरे से आगाह
करती माँ
क्षुब्ध होती हुई
अक्सर वही खिड़की बन्द कर देती है
जहाँ से मैं सूरज को
उगता देखती हूँ
(रचनाकाल :1977)