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माँ का मन हम न समझे / विद्या विन्दु सिंह

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माँ का मन हम न समझे
हर छुट्टियों में माँ
गोबर की गौर बनाकर
ऊपर दूब का मुकुट खोंस कर
मा गौरी से सगुन उठाती हैं
गौर डलिया में रखकर
चारों ओर घुमाती हैं
लिपे पुते चौक पर
डलिया (कुठई) औंधा करती है-
आँख मूद कर मेरे बच्चे आ रहे हैं,
नहीं आ रहे हैं कहकर प्रश्न उठाती है।
आ रहे हों तो उठकर बैठ जाना कहती हैं।
गौरी के गिरने का अर्थ है- नहीं
गौरी बैठी रह जायें सिर पर मुकुट दूब पहने
तो अर्थ है ‘हाँ’
बार-बार गौरी गिरती हैं
माँ बार-बार सगुन उठाती है,
शायद गौरी से भूल हो गयी
गोबर गीला है पसर गयीं,
ऊपर दूब का मुकुट है
भार से लुढ़क गयी
वह दुहराती है
अच्छा अबकी बार
उठकर बैठ जाना मा।
बच्चे जरूर आ रहे हैं
सगुन तो बता दो।
गौर का मन पसीज जाता है
वह भी मा है-
मा की आकांक्षा और दर्द भी जानती है
वह उठकर बैठ जाती है
झूठा सगुन दे देती है
मा निहाल हो उठती है
पर त्योहार बीत जाते हैं
बच्चे नहीं आते
मा कैसे सेरवाये गौर को
सगुन पूरा होने पर ही तो
गौर को जल में
विसर्जित किया जाता है
दूध से नहलाकर
हल्दी अक्षत से टीक कर।
पर मा क्या करे
कब तक गौर को रखे
बिना सेरवाये।
गौर का क्या दोष ?
मैने ही तो बार-बार
उसके सत्य को किया था अस्वीकार
उसने तो कुछ समय के लिए ही
झूठी ही सही
तसल्ली तो दी थी
जिसके सहारे कट गयीं
प्रतीक्षा की घड़ियाँ।
माँ गौरी को विसर्जित कर देती है
जाइये शीतल रहो माँ
मेरे ताप से तुम्हें भी हो रहा है कष्ट
फिर-फिर बुलाऊँगी तुम्हें
तुम्हारा आना तो मेरे हाथ में है
जब चाहूँ बुला लूँगी।