माँ का संदूक / अमृता सिन्हा
माँ शैय्या पर अवश
जीवन से लगातार
जूझती
पथराई आँखों
और साँसों की धौंकनी
के बीच
यात्रा
तय करती
थकने लगी हैं।
पर जीवन से
रिश्ता
अभी बाक़ी है।
शायद तभी शरीर काँपता है उनका
कभी कुछ,
टटोलती हैं उनकी उँगलियाँ
एकदम अनजान, अजनबी सी
होंठों की पपड़ियाँ
थरथराती हैं
पर बोल नहीं पातीं,
बस पड़ी रहती हैं बेसुध।
उनके कमरे में एक
भारी भरकम लोहे की संदूक है
जिस पर बड़ा-सा ताला जड़ा है
आते-जाते सबकी नज़र पड़ती है
इस संदूक पर
जिसके ताले की चाबी
माँ के सिरहाने रखी है।
एक दिन जब
माँ
की साँसें मुक्त हो जायेंगीं
जीवन के इन
झंझावातों से
तब
खोला जायेगा संदूक
ढूँढ़ा जायेगा सारा
माल असबाब
कुछ पुरानी डायरी
जिसपर लिखा गया होगा
सारा हिसाब किताब
होंगी जमापूँजी के
कुछ जोड़-घटाव
ज़मीन ज़ायदाद का
पापा के बचे पेंशन का
माँ के बचे ज़ेवरातों का
पूरी ज़िन्दगी
उन्होंने पूरे कुटुंब को
बाल-बच्चों को एक साथ
देखना चाहा था
पर उनके विदा लेते ही
शायद सब कुछ बँट जाएगा
बँट जायेंगी
उनकी पूरी धरोहर
पर तब भी
बची रहेंगी माँ
सबके बीच
टुकड़ा-टुकड़ा।