माँ को कभी दुल्हन की तरह सजते नहीं देखा / गौरव पाण्डेय
माँ लीप रही है द्वार गोबर से
तालाब की मिट्टी से पोत रही है दीवारें
माँ लीपती है घर के अतीत को
पोतती है वर्तमान को
ताकि लिखा जा सके
उसके परिवार का साफ-सुथरा भविष्य
कभी वर्षों पहले
इसी तरह लिपे-पुते महकते घर मे
दुल्हन बनकर आई थी माँ
बहुत हल्के पाँव रखते
पिता जी के पीछे-पीछे काँपते हुए
घर मेँ प्रवेश की होगी
नये-नये एहसासोँ और नई-नई स्थितियों को
सोलह साल की डरी हुई लड़की
भला कैसे संभाल पाई होगी
उसके गिरने-उठने-सम्भलने की साक्षी हैं
कुछ बची हुई कच्ची दीवारें
माँ की पीड़ा और चींख
इसकी झरती हुई मिट्टी के पास
काँन लगा कर चुपचाप सुना जा सकता है
उन दिनों
तुलसी से लगातार बतियाती रही माँ
आँगन की नींम से लगातार झरते रहे पत्ते
कलियों ने खिलने से मना कर दिया
फिर भी
बसंत आता रहा नियत समय से
झूले पड़ते रहे
सखियों -सहेलियों की दुनिया से बहुत दूर
माँ दिन-रात घर के कामों में खटती रही
इसी बीच माँ के पास हम आए
नई उम्मीदों के साथ नई मुसीबतें लिए
कभी-कभी माँ बताती है
कि कैसे एक बार गाँव में बीमारी फैली
पशु-पछी फिर बच्चे पटापट मरने लगे
वह हमें अपने सीने से लगाए
जलती दोपहरी में पैदल अस्पतालों के चक्कर काटती रही
हमारी बीमारी में बिक गई चैनपट्टी
छोटी की बीमारी में
बिछुआ-करधनी
फिर लम्बे करुण वृतांतों के बाद कहती है
'बस बेटवा , तुम्हार मुँह देख कै जी गवा'
आज माँ के हाथ हैं
घर के सारे नियम-कायदे
हम बच्चोँ की खुशी के बीच
नित-नित युवा हो रही है माँ
लहलहा रही है तुलसी
आँगन की नींम से झर रहे हैं फूल
सुबह का सूरज रोज माँ की माँग भरता है
और चाँद हर रात माँ का श्रंगार करने को आतुर
बस एक ही शिकायत है पिता से-
"माँ को कभी दुल्हन की तरह सजते नहीं देखा"