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माँ जैसा वो चेहरा ले कर आता था / ज्ञान प्रकाश विवेक
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माँ जैसा वो चेहरा लेकर आता था
ख़ुद रोता था पर मुझको सहलाता था
रस्ते पर थे नक्शे-क़दम या क़िस्से थे
राही रुक -रुक कर पढ़ने लग जाता था
तूफ़ानों को जिल्दों में रखने वाला-
ख़ुद को पन्नों की तरह बिखराता था
अंधे शीशे जैसी थी उसकी औक़ात
घर में रहता था लेकिन थर्राता था
सर्दी में जब मैं होता था कमरे में
मेरी छत पर चाँद अकेला गाता था
हुनरमंद सौदागर था वो मंडी का
झूठ पे सच्चाई के वर्क़ चढ़ाता था
खूँटी जैसी पलकों पर वो ख़ुश होकर
दर्द अँगोछे की तरह लटकाता था
मैं कुंठित था कोट पहन भी यारो
धूप ओढ़कर वो अक्सर मुस्काता था