भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ बेटे की राह देखती / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वृद्धाश्रम में माँ बेटे की
राह देखती

है सूनी आँखों में धुँधली-सी
अभिलाषा
पुत्र व्यस्त हैं, कहकर देती
रोज दिलासा
नहीं मानती बिसराएँगे
नहीं बिसरती

नहीं सीख पाई है मतलब
खुद से रखना
जिसे जना है, उसे समझती
केवल अपना
हुई अनुपयोगी ये बातें नहीं
समझती

अँगुल-अँगुल सींचा जिसने
दूध पिलाकर
उसे कहाँ माँ कहते हैं बेटे
अब आकर
कँपती हाथें, रोज पकाती, बरतन
मँजती