माँ मुस्कुरा के, जान जाती / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
बचपन में जब,
रो-रो कर मैं,
रुदन मचाता था
माँ मुस्कुरा के,
जान जाती थी
कि मैं,
क्या चाहता था
अकसर भोर तक
एक आवाज,
मधुर घोलती थी,
कानों में,
मेरा सिर गोद में
रखकर,
रातभर,
कोई लोहरी सुनाता था
वो माँ थी...
जिसे मैं,
वक्त भी,
न दे पाता था
माँ मुस्कुरा के,
जान जाती थी
कि मैं,
क्या चाहता था ।
जाड़ो की सर्द
रातों मे,
जाग कर,
मेरे लिए,
ऊँन की गुड़िया
कोई बनाता था
जब मैं,
मिट्टी के खिलौनो के लिए,
हंगामा मचाता था
माँ मुस्कुरा के,
जान जाती थी
कि मैं,
क्या चाहता था ।
अपने खेतों की,
सरसों में,
तितलियों के,
पीछे दोड़कर,
मैं जब निराश,
रह जाता
एक मासूम बच्चा,
जैसे तितलियों का
शहर चाहता,
तब पीले सरसों के
फूलों से कोई
मुझे मनाता था
माँ मुस्कुरा के,
जान जाती थी
कि मैं,
क्या चाहता था ।
नावों के माझी पे,
मैं नजरें गड़ाता
गाँव के,
तालाब में,
तरणी पर तैरना चाहता
तो,
माँ, रंगीन कागजों,
की कश्तीयों के,
ढेर लगा देती
मैं देख कर,
हर्षोल्लास,
मचाता था
माँ मुस्कुरा के,
जान जाती थी
कि मैं,
क्या चाहता था..।