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माँ से कभी नहीं छूटता है घर / रश्मि भारद्वाज

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माँ हमेशा कहती है
जब नहीं रहूँगी मैं
तब भी रहूँगी इस घर में
यहाँ की हवा में
अधखिले फूलों में
पत्तों पर टपकी ओस में
बेतरतीब हो गए सामानों में
पूजा घर में ठिठकी लोबान की ख़ुशबू में
तुलसी के पास रखे उदास संझबाती के दिये में
या मेरे चले जाने के बाद अनदेखे कर दिए गए
मकड़ी के जालों में

पौधों पर नन्ही कोई गिलहरी दिखे
तो समझना मैं हूँ
कोई नन्ही चिड़िया
तुम्हें बहुत देर से निहारे
तो समझना मैं ही हूँ।

हर शाम अकेली बैठी माँ
जपा करती है कुछ मन्त्र
और पास के एक बन्द पड़े मकान की खिड़की पर आ बैठता है एक बड़ी आँखों वाला उल्लू
बस चुपचाप देखा करता है, जाने क्या गुना करता है मन ही मन
माँ उससे बतियाती है, वह भी सर हिलाता है कि जैसे सब समझ पा रहा हो
छुट्टियों में आए अपने बच्चों को उससे मिलवाती, कहती है माँ
ऐसे ही चुपके से मैं आ बैठूँगी रोज़
देखूँगी इस घर को
याद करूँगी तुम सब को
तुम सब आओगे यहाँ कभी न कभी

माँ से कभी नहीं छूटता है घर
घर हमेशा ही छोड़ देता है माँ को