माँ है मूरत प्रेम की (दोहे) / गरिमा सक्सेना
माँ है मूरत प्रेम की, करती त्याग अपार।
संतानों में देखती , वो अपना संसार।।
सदा सुधा ही बाँटती ,सहकर शिशु की लात।
हर पल माँ करती रही, खुशियों की बरसात।।
क्षमा दया औ' प्रेम की, इकलौती भंडार।
माँ की महिमा है अमिट, गुण गाए संसार।।
हर संकट में जीव जो, लेता पहला नाम।
माँ ,मम्मी, माता वही, कह मिलता आराम।।
जो जग में करते नहीं, माता का सम्मान।
ईश नहीं देता उन्हें ,खुशियों भरा जहान।।
माँ के चरणों में दिखें, जिसको चारों धाम।
बने मात आशीष से, उसके सारे काम।।
माँ अपने औलाद की, माफ करे हर भूल।
माँ ही है जो विश्व में, सहे शूल दे फूल।।
रक्षा निज संतान की ,करती बनकर ढाल।
टकरा जाती मात है, चाहे सम्मुख काल।।
माँ का रिण न चुका सके, ब्रह्मा, विष्णु , महेश।
माँ जीवन का मूल है, और वही परमेश।।
बन जाओ जो तुम बड़े, मात न जाना भूल।
नहीं पनपते वृक्ष वो, टूटे जिनका मूल।।
आँचल में माँ के सुधा, और नयन में नीर।
नवजीवन करती सृजित, सहकर भारी पीर।।
व्रत पूजा करती रहे, करे जतन दिन-रात।
हर पल बस संतान के, हित की सोचे बात।।