माँ - 2 / कुलदीप कुमार
मैं तुम्हारा नाम लेता हूँ
और एक इक्यावन साल लम्बा अँधेरा
चुपचाप सामने आ खड़ा होता है
एक धुन्ध से दूसरी धुन्ध तक भटकने के बीच
आरी के लगातार चलने की आवाज़
कहीं कुछ कटकर गिरा
तुम्हारे अन्दर-बाहर
उम्र को तलते हुए
तुमने हर पल असीसा
मैं हँसता रहा झूलते-झूलते
तुम्हारे कन्धे पर
वक़्त तब भी इतना ही बेरहम था
लेकिन याद है
उन दिनों बारिश बहुत होती थी
कहीं एक गुल्ली उछली
सड़क पर पहिया चलाते-चलाते
बचपन अचानक ग़ायब हो गया
तुम क्यों मेरा स्याही-सना बस्ता उलट रही हो?
(गुम्बदों के नीचे
कोई किसी को न पुकारे
वहाँ सिर्फ़ ध्वनियाँ हैं गोलमोल)
मैं तुम्हारे दुःख में उतरता हूँ
डर की तरह
जैसे गर्भ में (कोई संगीत नहीं?)
काँपता हो कोई लैम्प
बना चिमनी का नंगा
चिरायँध में डूबता-काँपता डर की तरह
कालिख में भीगे उभरते हैं हाथ
और बहते हैं
फूलों की तरह किसी याद में
धूप बहुत तेज़ हो चली है
तुमसे बात तक नहीं हो पाती
दुनिया का सारा गूँगापन
तुम्हारी जीभ पर दानों की शक्ल में उभर आया है
अचंभा होता है कि ज़िन्दगी...
खनक है, सिर्फ़ खनक
ठनक है तुम्हारे भवसागर की
(कि पार न हों कभी इस अभावसागर से)
ठाकुर जी की आरती करो न !
जाने क्यों ज़िन्दा रहने की तड़प में
लोग ज़िन्दा तड़पते हैं
कैसा मौसम है
बारिश तो क्या उसकी बात भी नहीं
तुमने मुझे
मोर के पैर क्यों दिये माँ?