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माँ - 5 / डी. एम. मिश्र

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माँ कभी अपना दुख
अपने आँसुओं नहीं रोती
उपकारों की पोथी नहीं खोलती
परदेस
से आयी
बेटे की चिट्ठी को
सीने से चिपका लेती है तो
जैसे सैकड़ों दरियाओं को
तर-तर कर देती है

जो हमेशा फटे-पुराने
कपड़ों में रही हो
मनीआर्डर की नोटों में
अपने लिए नई धोती नहीं ढूँढती

अलबत्ता उसके चेहरे की झुर्रियाँ
फिर आईने-सी चमक उठती हैं
जब वह नाती-पोतों की
नटखट शैतानी की कहानियाँ
और किलकारियाँ
सोनू के मोबाइल पर सुनती है

माँ से दादी बनने के
सूने विस्तार में
कभी उसे देखिये
दूसरों के दुख में
वह आठ-आठ आँसू बहाती है
पर, अपने दुख का पहाड़
उठा लेना
उसे भाता है
क्योंकि कच्ची मिट्टी को
सुगढ़ बनाना
उसे आता है