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माँ / गोपालशरण सिंह

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है जग-जीवन की जननी तू
तेरा जीवन ही है त्याग ।
है अमूल्य वैभव वसुधा का
तेरा मूर्तिमान अनुराग ।

धूल-धूसरित रत्न जगत का
है तेरी गोदी का लाल ।
है जग-बाल जलज का रक्षक
माँ, तेरा मृदु बाहु मृणाल ।

कितनी घोर तपस्या करके
पाती है तू यह वरदान ?
किन्तु विश्व को अनायास ही
कर देती है उसे प्रदान ।

है तुझसे ही लालित-पालित
यह भोला-भला संसार ।
करती है प्लावित वसुधा को
तेरी प्रेम सुधा की धार ।

तेरे दिव्य हृदय में जिसका
रहता है सदैव संचार ।
लिए अंक में मृदुल सुमन को
लता दिखाती है वह प्यार ।

वनस्थली के अंग-अंग में
होता तेरा प्रेम-विकास ।
नव-बसंत उसके आँगन में
जब क्रीड़ा करता सोल्लास ।

सुत वियोग-दुख से विह्वल हो
रोते हैं माँ तेरे प्राण ।
किन्तु सभी कुछ सह लेती तू
हो जिससे जग का कल्याण ।

(काव्य-संग्रह 'मानवी' से लम्बी-कविता का अंश)