माँ / निरुपमा सिन्हा
बड़ा बेटा निकल रहा था
जब गाँव से
इक छाँव आँचल ने
गाँठ से निकाल कर
रख दिया था
हथेली पर 2 रुपए का नोट
पहली बार तुड़ी मुड़ी सी थोड़ी सी उसके साथ आई थी माँ!
दूसरी बार दूसरे बेटे के बस्तों में
भर कर स्टील के डिब्बों से
चल कर बेसन के लड्डू में
बिंध कर
आखिरी लड्डू के चूरे में
दबी महकी पड़ी
नीचे तल में लपट गई थी माँ!
तीसरी बार बिटिया के
हल्के तपते बदन पर
ठंडी पट्टियों के लिए
तसले भर रेत को
कच्चे घड़े में भर
तमाम नसीहतों का
निर्मल जल
बन आई थी
उसके बाद न जाने कितनी बार टुकड़ों टुकड़ों में आती रहीं माँ!
आज
गोबर से लीपे चबूतरे पर
नीम के पेड़ के
नीचे फटी दरी पर लिटाई गई माँ!
पूरा जीवन
जिस आँगन
ओसारे को
अपना कहते
थकते नहीं थे उनके पाँव
उसी दरवाज़े पर
किसी और के”नेम प्लेट”के सामने
निर्जीव
अंतिम इच्छा के मान स्वरूप
शहर से लाई... लिटाई गई माँ!
रुदन में बँट रही थी उनकी कथा
कैसे टुकड़ों टुकड़ों में
ले जाई गई थी वो...
पर कभी भी पूरी तरह
अपने जड़ समेत शहर... नहीं जा पाई थी माँ!