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माँ / प्रेम कुमार "सागर"

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यादों के गलियारे से
चुनकर कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं
पिरोता हूँ उन्हें अनछुए अहसास के धागे में,
ख्वाब में, और बन जाती है एक तस्वीर,
वो तुम होती हो|
मंदिर की सीढियाँ चढ़ते
सोचने लगता हूँ, वो सूरत कैसी होगी
जिसने बाँध रखी है संसार को
एक डोर में, औ' बन जाती है एक मूरत
दिल के किसी कोने में,
वो तुम होती हो|
संकट-समय और साँय-साँय
अनजाने में,काँपता हूँ अनगिन-भय से,
और अकस्मात् जब पड़ने लगता
हूँ स्याह-नीला, आ जाती है एक दैवी प्रतिमा
साक्षात् आँखों के सामने,
वो तुम होती हो,
माँ, वो तुम होती हो |
माँ, तुम क्योँ आती हो हर तस्वीर में,
याद में, संकट में, ख़ुशी में, गम में,
जिंदगी के हर कैनवास में,
आँखिर क्योँ, आकर खुशियों के हर रंग बिखेर जाती हो ?
जब भी कोशिश करता हूँ
समझने की, कुछ जान पाने की,
रह जाती है अधूरी,
तुम कितनी बड़ी हो और मै कितना छोटा |
माँ, इसी तरह आना,
मै चाहे पुकारूँ न पुकारूं, रोऊँ न रोऊँ,
तुम आती रहना,
मेरी यादों में, मेरे मंदिर में, बस इसी तरह |