भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / भाग १९ / मुनव्वर राना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं हूँ मिट्टी तो मुझे कूज़ागरों तक पहुँचा
मैं खिलौना हूँ तो बच्चों के हवाले कर दे

हमारी ज़िन्दगी का इस तरह हर साल कटता है
कभी गाड़ी पलटती है कभी तिरपाल कटता है

शायद हमारे पाँव में तिल है कि आज तक
घर में कभी सुकून से दो दिन नहीं रहे

मैं वसीयत कर सका न कोई वादा ले सका
मैंने सोचा भी नहीं था हादसा हो जायेगा

हम बहुत थक हार के लौटे थे लेकिन जाने क्यों
रेंगती, बढ़ती, सरकती च्यूँटियाँ अच्छी लगीं

मुद्दतों बाद कोई श्ख्ह़्स है आने वाला
ऐ मेरे आँसुओ! तुम दीदा—ए—तर में रहना

तक़ल्लुफ़ात ने ज़ख़्मों को कर दिया नासूर
कभी मुझे कभी ताख़ीर चारागर को हुई

अपने बिकने का बहुत दुख है हमें भी लेकिन
मुस्कुराते हुए मिलते हैं ख़रीदार से हम

हमें दिन तारीख़ तो याद नहीं बस इससे अंदाज़ा कर लो
हम उससे मौसम में बिछ्ड़े थे जब गाँव में झूला पड़ता है

मैं इक फ़क़ीर के होंठों की मुस्कुराहट हूँ
किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती

हम तो इक अख़बार से काटी हुई तस्वीर हैं
जिसको काग़ज़ चुनने वाले कल उठा ले जाएँगे

अना ने मेरे बच्चों की हँसी भी छीन ली मुझसे
यहाँ जाने नहीं देती वहाँ जाने नहीं देती

जाने अब कितना सफ़र बाक़ी बचा है उम्र का
ज़िन्दगी उबले हुए खाने तलक तो आ गई

हमें बच्चों का मुस्तक़बिल लिए फिरता है सड़कों पर
नहीं तो गर्मियों में कब कोई घर से निकलता है

सोने के ख़रीदार न ढूँढो कि यहाँ पर
इक उम्र हुई लोगों ने पीतल नहीं देखा

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी
जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ