माँ / भाग ८ / मुनव्वर राना
मुझे खबर नहीम जन्नत बड़ी कि माँ लेकिन
लोग कहते हैं कि जन्नत बशर के नीचे है
मुझे कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है
बुज़ुर्गों का मेरे दिल से अभी तक डर नहीं जाता
कि जब तक जागती रहती है माँ मैं घर नहीं जाता
मोहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है
मोहब्बत माँ को भी मक्का—मदीना मान लेती है
माँ ये कहती थी कि मोती हैं हमारे आँसू
इसलिए अश्कों का का पीना भी बुरा लगता है
परदेस जाने वाले कभी लौट आयेंगे
लेकिन इस इंतज़ार में आँखें चली गईं
शहर के रस्ते हों चाहे गाँव की पगडंडियाँ
माँ की उँगली थाम कर चलना मुझे अच्छा लगा
मैं कोई अहसान एहसान मानूँ भी तो आख़िर किसलिए
शहर ने दौलत अगर दी है तो बेटा ले लिया
अब भी रौशन हैं तेरी याद से घर के कमरे
रौशनी देता है अब तक तेरा साया मुझको
मेरे चेहरे पे ममता की फ़रावानी चमकती है
मैं बूढ़ा हो रहा हूँ फिर भी पेशानी चमकती है