माँ / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

माँ ममता की, अचल स्नेह की , करूणा की प्रतिमा साकार।
बड़े भाग्य से जग में मिलता नर को माँ का पावन प्यार।।

सच्चे सुख से वह वंचित है पाकर भीजग सौख्य अपार।
जो न कभी माँ की गोदी में सो पाया है सहित दुलार।।

मातृस्नेह के मृदु सुमनों से सज्जित है जीवन की राह।
जिससे कभी न हो पाती है पथ के काँटों की परवाह।।

निश्चय दण्ड दिया जाता है दण्डनीय को यथाविधान।
पर माँ के हृदयासन से नित होती सबको क्षमा प्रदान।।

जग के सारे कष्ट वरण कर, करती जो सुत का कल्याण।
जिसके अंचल की छाया में खल को भी मिलता है त्राण।।

ऐसी ममतामयी मूर्ति का करता जो किंजित अपकार।
स्वयं खोलता है पामर, अपने हित रौरव का द्वारा।।

जग के सारे उपकारों का कर सकता मानव प्रतिकार।
किन्तु असंभव है उतारना सिर से माँ के ऋण का भार।।

वीर वही है जगतीतल में पूत वही है पूत महान।
जो माँ की सेवा में कर देता सहर्ष जीवन बलिदान।।

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