भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

माँ / राजा खुगशाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वनस्पतियों को दुलारती रहती हैं हवाएँ

ज़मीन की ओर देख कर कहता हूँ--माँ

ज़मीन नहीं कहती--हाँ


खेतों से लौट कर

गाँव के ओने-कोने में खोजती थीं मुझे

दो तरल आँखें

ओझल हो गईं

खुरदरी हथेलियाँ

जिनकी पहुँच से दूर होता रहा मैं


हथेलियाँ

जिन्होंने घर की दीवारों को

माटी-गोबर से

जीवन भर लीपा था


ओबरे में दूर तक सँवारा था

हमारा संसार

कंडी में रोटियाँ

कटोरी में सब्ज़ी

सुनसान रातों में

अब मेरा इन्तज़ार नहीं करतीं ।