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माँ / राजा खुगशाल
Kavita Kosh से
वनस्पतियों को दुलारती रहती हैं हवाएँ
ज़मीन की ओर देख कर कहता हूँ--माँ
ज़मीन नहीं कहती--हाँ
खेतों से लौट कर
गाँव के ओने-कोने में खोजती थीं मुझे
दो तरल आँखें
ओझल हो गईं
खुरदरी हथेलियाँ
जिनकी पहुँच से दूर होता रहा मैं
हथेलियाँ
जिन्होंने घर की दीवारों को
माटी-गोबर से
जीवन भर लीपा था
ओबरे में दूर तक सँवारा था
हमारा संसार
कंडी में रोटियाँ
कटोरी में सब्ज़ी
सुनसान रातों में
अब मेरा इन्तज़ार नहीं करतीं ।