माँ / लीना मल्होत्रा
जब मैं
सुई में धागा नहीं डाल पाती
तुम्हारी उँगलियों में चुभी सुइयों का दर्द बींध देता है सीना
जब दीवार पर सीलन उतर आती है
तुम्हारी सब चिंताएँ
मेरी आँखों की नमी में उतर आती हैं माँ ।
जब मेरी बेटी पलटकर उत्तर देती है
ख़ुद से शर्मिंदा हो जाती हूँ मैं I
और
समझ जाती हूँ
कैसा महसूस किया होगा तुमने माँ ।
शाम को चाहती हूँ
हर रोज़ करूँ
गायत्री-मन्त्र का पाठ
और विराम लूँ रुक कर उस जगह
जहाँ रुक कर तुम साँस लेती थीं
कई संकेत,
तुम्हारी कई भंगिमाएँ,
तुम्हारा पर्याय बन जाते हैं माँ -
कई बार जब शाम को बत्ती जलाती हूँ
और प्रणाम करती हूँ उजाले को
तो मुझे लगता है वो मै नहीं, तुम हो माँ ।
मै अपना एक स्पर्श तुम तक पहुँचाना चाहती हूँ ।
अँधेरे में रात को कई बार उठती हूँ
तो सोचती हूँ
माँ से साक्षात्कार हो पाता
बस एक बार
पूछ सकती- कैसी हो माँ ?
तुम नहीं आती
उत्तर चला आता है
"मै ठीक हूँ बेटी अपना ध्यान रखना" ।
आँखे मूँद लेती हूँ
और देखती हूँ उस प्रक्रिया को
जो
मुझे तुम में रूपांतरित कर रही है ।
और तुम्हारे न रहने पर
मै सोचने लगी हूँ तुम बन के
मै बदल रही हूँ तुममे माँ ।
सिर्फ़ स्मृति में नहीं माँ
जीवित हो तुम
मेरे हाव-भाव में
मेरी सोच में
मुझ में ।