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माँ / शार्दुला नोगजा
Kavita Kosh से
याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा
मेरी सर्दी मेरी खाँसी
मेरा ताप और बीमारी
हँस के तू अपना लेती थी
करती कितनी सेवादारी
पा कर तेरा स्पर्श तेजस्वी
मैं अच्छा हो जाता था
फिर लूट पतंगें फाड़ जुराबें
देर रात घर आता था
दरवाजे पे खड़ी रही होगी
तू जाने कब से
श्! श्! कर किवाड़ खोलती
बाबू जी गुस्सा तुझ से!”
फिर बड़ा हुआ मैं, बना प्रणेता
किस्मत ने पलटा खाया
जो समझ शूल दुनिया ने फेंका
बना ताज उसे अपनाया
सब चाहने वालों से घिर भी
तेरा प्यार ढूँढ़ता हूँ
जो धरती अंकुर पर करती
वो उपकार ढूँढ़ता हूँ .
याद मुझे आता है हर क्षण
जब पाया था प्यार तेरा
और हाथ बढ़ा के कह ना सका था
मुझ पे माँ एहसान तेरा