माई ! हौं तकि लागि रही / सूरदास
माई ! हौं तकि लागि रही ।
जब घर तैं माखन लै निकस्यौ, तब मैं बाहँ गही ॥
तब हँसि कै मेरौ मुख चितयौ, मीठी बात कही ।
रही ठगी, चेटक-सौ लाग्यौ, परि गइ प्रीति सही ॥
बैठो कान्ह, जाउँ बलिहारी, ल्याऊँ और दही ।
सूर स्याम पै ग्वालि सयानी सरबस दै निबही ॥
भावार्थ :-- (गोपी कहती है-) `सखी! मैं ताक में लगी थी । ज्यों ही घर में से मक्खन लेकर मोहन निकला त्यों ही मैंने हाथ पकड़ लिया । तब उसने हँस कर मेरे मुख की ओर देखकर मधुर-वाणी से कुछ कह दिया । इससे मैं ठगी रह गयी, जैसे जादू हो गया हो ऐसी दशा हो गयी, उससे मेरा सच्चा प्रेम हो गया ।' (मैंने कहा-)`कन्हाई ! बैठो, मैं तुम पर बलिहारी जाती हूँ और भी दही ले आती है (भली प्रकार खा लो)' सूरदास जी कहते हैं कि इस चतुर गोपी ने श्यामसुन्दर पर अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और (सहज ही संसार-सागर से) तर गयी ।