माई बाप / सूर्यपाल सिंह
बादलों से झरती फुही
मल्लिका के झरे फूल
रातरानी की मादक गंध
किसी से भी कम न हुई
माँ की उदासी।
निर्लिप्त आँखों से
देखती रही वह मौन
कि सहसा फ़ोन बजा
बेटे की आवाज़ खनकते ही
उदास चेहरा खिल उठा
' षरद की चाँदनी
ताल में खिले कुमुद
ललचाते हैें माँ
षरद में आऊँगा
चाँदनी में नहाते
सरोज संग बतियाऊँगा
सुनूँगा गुनगुनाते
तेरा मानस पाठ
बापू की लच्छेदार बातें।
उन्हें ब्लॉग पर अंकित कर
चमत्कृत कर दूँगा साथियों को।
अभी बैल की तरह जुता हूँ
पैसा कमाने में
माई-बाप है पैसा यहाँ
बिना उसके कुछ भी
कभी कुछ भी मिलता नहीं
सब कुछ बिकता है यहाँ
धर्म, ईमान, प्रेम, कोख
और जाने क्या-क्या?
तुम नहीं समझ पाओगी माँ।
सरोज भी लगी है
मषीन की तरह
पेैसा कमाने में
अभी नाती देखने की
लालसा न पालो माँ
अपना देष छोड़
पैसा कमाने ही
न्यूयार्क आया हूूँ
कुछ पाने के लिए
गंवाना पड़ता है बहुत कुछ। '
दिन बीते, भीतर से
अहकते हुए माँ
करती रही प्रतीक्षा
दरवाजे पर खंजनों की।
एक दिन जैसे ही द्वार पर
खंजन को फुदकते देखा
नाच उठा उसका मन
हुलस कर पिता भी लग गए
सँवारने में घर।
सुनहली किरणों से नहाई
एक सुबह
माँ गुनगुनाते
फर्ष धोते मग्न थी
बेटे बहू के स्वप्नों में
कि बज उठी घंटी
माँ ने दौड़कर उठाया
उधर से आवाज़ खनकी
' नहीं आ सकूँगा माँ
हम दोनों इस बार
बिताएँगे छुट्टी
मियामी बीच पर
सरोज ने सीख लिया है
क्लबों में नृत्य करना
छरहरी हो गयी है वह
प्रस्तुत करेगी अपना नृत्य मियामी में
बढ़ेगी साथियों में इससे
हम दोनों की साख
इज़्ज़त के लिए आदमी
क्या नहीं करता?
सपनों में नहीं
यथार्थ में जियो माँ
पेषेवर बनो। '
माँ के हाथ कँपे
फोन को रख
निढाल बेबस वह
जा गिरी
घम्म से बिस्तर पर
'हे राम' कहते।