भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माई / देवेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
आँगन, घर ओरी है माई
काठ की तिजोरी है माई ।
गाल, पेट, मुँह निहारती
दूध की कटोरी है माई ।।
सरसों-सी फूली-फूली
मत कहना तोरी है, माई ।
अभी-अभी ही पकड़ी गई
बच्चों की चोरी है, माई ।।
सोच रही क्या पड़ी-पड़ी
पान की गिलोरी है माई ।
सूई में धागे जैसी
काली, न गोरी है, माई ।।
थोड़े में ज़्यादा, कुछ ज़्यादा
ज़्यादे में थोड़ी है माई ।
साथ-साथ जगती-सोती
माथे की रोरी है माई ।।