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माघ संक्रान्ति की रात / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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हे पावक-
अनन्त नक्षत्र वीथी तुम,
अन्धेरे में तुम्हारी पवित्र अग्नि जल रही है।

समय और आकाश में पृथ्वी के मन पर-
हर सृजन का अन्त यदि अंधेरी रात हो
और मानव हृदय में भी केवल वही प्रतिबिम्बित हो,
तब भी, निःशब्द मनोबल से जलती है ज्योति-
समय आकाश पृथ्वी के मन पर,
जाना है मैंने भोर में, धूप में, नीलिमा में,
निःशब्द अरबों अंधेरी रातों में वह ज्योति शिखा लुप्त है।

और एक दिन महाविश्व अंधेरे में डूबने पर
मन में सोची पर जो बोली नहीं नारी
उसे ही लक्ष्य में लिए अंधकार, शक्ति, अगिन, स्वर्ण की तरह ही-
देह होगी, मन होगा और तुम होगी उन सबकी ज्योति।