भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
माजणों / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
गरीबां रां
लोई पी-पी’र
हाथी बणयौड़ौ,
थूं जका नैं समझै
कादै रा कीड़ा,
बै ई पाळै
थारो मोटौ पेट।
उणां पसेवां रै
पांण खड़्या है
अै थारा डीगा मै ’ल-माळिया
थारी गौरी
चामड़ी पर चिकणा’ट
उणां रै परताप सूं
बापरै थारै सातूं सुख
पण
धन रै आफरै में
अेहसाण-चूक होयौड़ौ थूं
आ नीं भूलै’कै
अमींरा नै रोटी
जद तांईं मिलै
जद तांईं गरीबा रो
पेट खाली है
आंख में पाणी है।
अै चींथिजती
कीड़ियां जे
विद्रोह माथै उतरै
तो हाथी रै माजणों
कांई है?