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माज़ी का थे चराग जलाए तमाम रात / सादिक़ रिज़वी
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माज़ी का थे चराग जलाए तमाम रात
यादों ने दिन के ख़्वाब दिखाए तमाम रात
तसकीने-दिल के वास्ते अक्सर अंधेरों में
ढूँढा किया हूँ अपने ही साए तमाम रात
दो-चार लम्हे भी न रहे लज्ज़ते-गुनाह
पादाश का ख़याल रुलाये तमाम रात
बस सोचते ही सोचते नींद अपनी उड़ गई
अपना वजूद ढूंढ न पाए तमाम रात
हो बेहिजाब चाँद सितारों के दरमियाँ
सूरज हया से मुहँ को छुपाये तमाम रात
सो जाएँ थोड़ी देर जो आराम के लिए
रफ्तारे-वक़्त हमको चलाए तमाम रात
छूकर किसी के शोला बदन को ख़याल में
ख्वाबों में अपने हाथ जलाए तमाम रात
ता सुब्ह कश्ती कैसे संभाली है क्या कहें
गिरदाब में थे मौत के साए तमाम रात
'सादिक़' जिगर में होती रही मीठी सी कसक
रह रह के हमको याद वह आये तमाम रात