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माज़ी के गुलसितां में जब ले चलेंगी आँखें / मधु 'मधुमन'

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माज़ी के गुलसितां में जब ले चलेंगी आँखें
लम्हों की ख़ुश्बूओं से महका करेंगी आँखें

यादों के अब्र जब भी छाएँगे ज़ेह्न-ओ-दिल पर
बेसाख़्ता छमाछम बहनें लगेंगी आँखें

अल्फ़ाज़ जब न होंगे होंठों पर होंगे ताले
ऐसे में दिल की सारी बातें कहेंगी आँखें

मालूम है कि उसने आना नहीं है वापस
हर वक़्त फिर भी उसका रस्ता तकेंगीं आँखें

कितने भी हों समुंदर अश्कों के इनमें चाहे
दुनिया के सामने पर हँसती रहेंगी आँखें

दीवार ताकते ही गुज़रेगी रात शायद
नींदें ही रूठ जाएँ तो क्या करेंगी आँखें

मजबूर हैं ये शायद फ़ितरत से अपनी ‘मधुमन’
मायूसियाँ में भी कुछ सपने बुनेंगी आँखें