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माज़ूर हैं बकते चले जाते हैं अगर हम / मेला राम 'वफ़ा'
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माज़ूर हैं बकते चले जाते हैं अगर हम
क्यों कर रहे खमोश कि रखते हैं नज़र हम
होता है जो कुछ उस का भी केते हैं असर हम
होना है जो कुछ उस की भी देते हैं ख़बर हम
बस वादे ही वादे हैं ये सौ बार के वादे
कब तक इन्हें हर रोज़ सुनें बार-ए-दिगर हम
दुश्मन को भी वो हाल न पेश आए ख़ुदाया
दिन उम्र के जिस हाल में करते हैं बसर हम
हालात की इस्लाह तो है दूर की इक बात
हालात को पहले से भी पाते हैं बतर हम
मुरझाये हुए चेहरों पे सहमी हुई आंखें
हर सम्त यही देखना हैं शाम-ओ-सहर हम
होता है अगर अर्ज़-सितम पर तो बला से
हो जाये मिज़ाज उस सितम-ईजाद का बरहम
ज़ाहिर है 'वफ़ा' सूरत-ए-अहवाले चमन से
होने को है अब नज़्मे- चमन दरहम-ओ-बरहम।